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01 Oct
267

मल-त्रय का सिद्धांत और आयुर्वेद व नैचुरोपैथी  की विलक्षणता

 

आयुर्वेद शरीर को केवल धातु और अंगों का ही खेल नहीं मानता, बल्कि यह भी मानता है कि मल-त्रय (मल, मूत्र और स्वेद) शरीर की शुद्धि, संतुलन और जीवन-धारा को बनाए रखने में उतने ही आवश्यक हैं जितना धातु-पोषण।

???? यह दृष्टि केवल आयुर्वेद में मिलती है; आधुनिक चिकित्सा “अपशिष्ट” को केवल बेकार पदार्थ मानकर छोड़ देती है।

१. मल-त्रय की मूल परिभाषा

मल (विष्ठा):
अन्नपाचन का अवशिष्ट भाग, जो न निकले तो आम उत्पन्न कर अनेक रोगों की जड़ बनता है।

उदाहरण: यदि कई दिन मल न निकले तो सिर भारी, पेट फूलना, गैस और चिड़चिड़ापन शुरू हो जाता है।

मूत्र:
द्रव-अपशिष्ट का निष्कासन, जो न निकले तो अशुद्ध जलधारण से रोग उत्पन्न करता है।

उदाहरण: लंबे समय तक मूत्र रोकने पर पेशाब की जलन, गुर्दे पर दबाव और सूजन हो जाती है।

स्वेद (पसीना):
शरीर का ऊष्मा-संतुलन और विष-निष्कासन का प्राकृतिक साधन।

उदाहरण: जिन लोगों का पसीना रुक जाता है, उन्हें अक्सर ज्वर या त्वचा रोग उभर आते हैं।

???? इन तीनों का संतुलित निष्कासन शरीर-धातुओं को शुद्ध रखकर जीवन को आरोग्य देता है।

२. मल-त्रय का समग्र महत्व

आधुनिक चिकित्सा मल को केवल feces, मूत्र को urine और स्वेद को perspiration के रूप में लेती है—यानि केवल भौतिक अपशिष्ट।

किंतु आयुर्वेद बताता है कि—

यदि मल समय से न निकले तो गैस, आमवात, त्वचा रोग, मानसिक चिड़चिड़ापन उत्पन्न होते हैं।

उदाहरण: कब्ज के रोगी में त्वचा पर दाने निकलना और सिरदर्द होना सामान्य है।

यदि मूत्र अवरुद्ध हो तो किडनी रोग, सूजन, मूत्रविकार होते हैं।

उदाहरण: पेशाब न रुक पाने वाले लोग अक्सर बार-बार सूजन और थकान से ग्रसित रहते हैं।

यदि स्वेद रुके तो ज्वर, त्वचा-रोग, अग्नि-मंद्य उत्पन्न होते हैं।

उदाहरण: जिनका पसीना नहीं निकलता, उन्हें गर्मी में तुरंत चक्कर आने लगता है।

???? अर्थात्, मल-त्रय का नियंत्रण शारीरिक–मानसिक स्वास्थ्य से सीधा जुड़ा है।

३. रोग-समझ का विलक्षण दृष्टिकोण

किसी रोग में यदि ज्वर है, तो आयुर्वेद देखता है—क्या स्वेद मार्ग अवरुद्ध है?

यदि सिरदर्द है, तो देखता है—क्या मल का शोधन बाधित है?

यदि त्वचा-रोग है, तो रक्त के साथ-साथ मल–मूत्र–स्वेद की गड़बड़ी पर भी विचार करता है।

???? इस प्रकार आयुर्वेद केवल लक्षण देखकर दवा नहीं देता, बल्कि मल-त्रय के स्तर तक जाकर रोग का मूल समझता है।

. ४. लंघन, आहार और जलयोजन का महत्त्व

???? मल-त्रय की शुद्धि और संतुलन केवल औषधियों पर नहीं, बल्कि दैनिक आहार-विहार की सुव्यवस्था पर भी निर्भर है- 

1. लंघन / उपवास

भोजन एकसाथ नहीं, बल्कि क्रमशः पचता है।

यदि पुराने भोजन का अंश अभी रस व मल में विभाजित हो ही रहा हो और हम नया भोजन कर लें तो अग्नि पर दबाव पड़ता है।

परिणामस्वरूप आम-विष का संचय प्रारम्भ होता है।

???? अतः नियमित लंघन करने से अनपचे अंश को भी पचने का पर्याप्त समय मिलता है और जठराग्नि संतुलित रहती है।

उदाहरण: रात्रि को भारी भोजन करने वाले यदि सुबह पुनः भरपेट खा लें तो सुस्ती और गैस हो जाती है, जबकि उपवास करने पर शरीर हल्का और मन स्पष्ट होता है।

2. आहार

क्या खाएँ, कब खाएँ और कितनी मात्रा में खाएँ—यह सबसे महत्वपूर्ण है।

उद्देश्य होना चाहिए कि भोजन सुपाच्य होकर रस बनाए, विष नहीं।

???? अतः भोजन की प्रकार, मात्रा और आवृत्ति का चयन विवेकपूर्ण होना चाहिए, न कि विकृत प्रवृत्ति के आधार पर।

उदाहरण: तैलीय, भारी भोजन देर रात करने पर पित्त और कब्ज की समस्या बढ़ जाती है; वहीं दिन में हल्का, ताजा भोजन करने से पाचन सहज रहता है।

3. जलयोजन

लंघन और आहार दोनों की प्रक्रिया जल सेवन पर भी निर्भर है।

पर्याप्त जल-सेवन पाचन, निष्कासन और विष-निवारण को सहज बनाता है।

???? नियमित और उचित जलयोजन से लंघन व आहार की भूलों के दुष्प्रभाव भी कम हो जाते हैं।

उदाहरण: कम पानी पीने वालों को अक्सर सिरदर्द और मूत्र जलन रहती है, जबकि पर्याप्त जल सेवन से यह स्वतः कम हो जाता है।

५. आयुर्वेद की अन्यतम श्रेष्ठता

आधुनिक चिकित्सा “constipation, urinary retention, sweat disorder” को अलग-अलग रोग मानती है।

आयुर्वेद इन्हें जीवन के तीन अनिवार्य मार्गों (विष्ठा, मूत्र, स्वेद) की विकृति मानता है और इन्हें ठीक कर सम्पूर्ण स्वास्थ्य स्थापित करता है।

???? यही कारण है कि आयुर्वेद डिटॉक्सिफिकेशन को रोग-निवारण की जड़ मानता है, जबकि अन्य चिकित्सा इसे केवल “लक्षण प्रबंधन” तक सीमित रखती है।

अंत में 

मल-त्रय का सिद्धांत आयुर्वेद की अद्वितीय दृष्टि है।

यहाँ मल–मूत्र–स्वेद केवल अपशिष्ट नहीं, बल्कि जीवन के नियामक स्तंभ हैं।

इनके संतुलित निष्कासन के साथ-साथ—लंघन, समुचित आहार और जलयोजन—भी उतने ही आवश्यक हैं।

यही संयोजन रोग-निवारण, स्वास्थ्य-संरक्षण और दीर्घायु का मूल आधार है।
????  प्रक्रितिक चिकित्सा व आयुर्वेद की वह विलक्षणता है जो अन्य कहीं उपलब्ध नहीं।
Vaidya Krishna kant Sonii
BAMS, D. Ph., DNHE, MHA
FOUNDER Nature Care Ayurveda 

Ex AMO Distinct Hospital Bhopal

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